जिज्ञासाएँ अनंत हों तो मन की चंचलता बहुत बढ़ जाती है और जब उन जिज्ञासाओं का निवारण न हो तो व्याकुलता बढ़ जाती है। चंचलता और व्याकुलता के मध्य में स्वयं को असहाय अनुभव करने में भी एक अलग ही रोमांच है।
कभी आप केवल स्वयं के बारे में विचार करते है तो कभी समाज के बारे में विचार करके अपनी परिपक्वता का आभास करते हैं परंतु आप भी तो समाज का अंग है तो दोनों विचारों में अंतर कैसा ?
दोनों ही में आपका निजी स्वार्थ निहित है।
मृत्यु एक शाश्वत सत्य है और जीवन भी मृत से आरम्भ होकर मृत्यु में समां जाता है, फिर जीवन का लक्ष्य मृत्यु को ही पाना है तो जीवन किस लिए मिलता है।
जीवन भर भोग विलास तो पशु भी करते है और मनुष्य भी फिर अंतर क्या है मनुष्य और पशु में ?
जिस विवेक का दावा मनुष्य करता है उसका उपयोग पशुप्रवित्ति के भरण पोषण के लिए ही क्यों करता है, अर्थात विवेक तो है ही नहीं, केवल कामना ही शेष है अब।
मतलब जीवन केवल कामनापूर्ति के लिए है। पर क्या किसी की कामनाये पूर्ण रूप से पूरी हो पायी है ?
मेरी तो नहीं हो पायी। और पूरी होती भी नहीं दिख रही हैं।
तो फिर क्या करूँ ? कामनाओं का त्याग ?
क्या वो संभव है ? प्रयास तो बहुत किया, पर हर बार नयी कामना जन्म ले लेती है ।
मातलब जीवन में मृत्यु तक रोमांच बना रहेगा।
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Saturday, November 7, 2015
दुविधा
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